Thursday 30 April 2015

डगमग अभी है बोट प्रिये

















कर लो मेरा विश्वास, दिल में नही है खोट प्रिये                
गहने मगंवा दूगां, पर डगमग अभी है बोट प्रिये
॰॰
सातो प्रण है याद मुझे, लिये सभी हैं घोट प्रिये
इतना गुस्सा ठीक नही, हो जायेगा विस्फोट प्रिये
॰॰
मेरे अन्तर-जन्तर-मन्तर सब तुम्हे रिझाते हैं
छोटा-मोटा नेता मैं, तुम कीमती हो वोट प्रिये
॰॰
चावल-चन्दन-कुमकुम, तुमको मेरे सब अर्पण
लक्ष्मी सेवक हम, तुम हरी-हरी सी नोट प्रिये
॰॰
घर की न्याय व्यवस्था में वकील भी तुम
जज भी तुम, बस नही है काला कोट प्रिये
॰॰
आज्ञा पालन करते है, गुस्से से ही डरते है
मत उठाओ बेलन ये, लग जायेगी चोट प्रिये


 जितेन्द्र तायल
 मोब. 9456590120

(स्वरचित) कॉपीराईट © 1999 – 2015 Google इस ब्लॉग के अंतर्गत लिखित/प्रकाशित सभी सामग्रियों के सर्वाधिकार सुरक्षित हैं। किसी भी लेख/कविता को कहीं और प्रयोग करने के लिए लेखक की अनुमति आवश्यक है। आप लेखक के नाम का प्रयोग किये बिना इसे कहीं भी प्रकाशित नहीं कर सकते। कॉपीराईट © 1999 – 2015 Google

Wednesday 22 April 2015

..........रोकती है













इस मिट्टी को बेईमानी के पानी मे मिला के चाक पर ये ठोकती है
बार-बार, हर-बार ए “जीत” मिट्टी को गुनाहों की आग मे झोकती है
पर नेकियों का सिला भी आदतन, भला देती है सबको ये कुदरत 
इस तरह गुनाहों मे हद से गुजर जाने से रोकती है


झूठ बोलना पाप था पर, ईन्सान अब झूठ बोलते नही लजाते है
सीखना था जिनसे सच बोलना, वही रेल मे गलत उम्र बताते है
यही दुनियादारी है जो सच बोलने से रोकती है


कविता होती है समाज का आइना, पर टी.वी. समाज को गढते है
घर के बडों से सीखते थे बच्चे, अब टी. वी. रोज ये देख बढते है
यही कलाकारी इन्हे मां-बाप पे जाने से रोकती है


ऊचाइयों की तमन्ना हमे भी थी, खासे बेकरार थे ऊचां दीखने को
बुलन्द मीनारों की जद मे गये हम, ऊचाईयों का हुनर सीखने को
वही ईमारत हमारे हिस्से की धूप को रोकती है


जहां मे हर इन्तजाम है, यहां बिगडने का हर समान है मानता हुं
कोई है यहां इस जहां से ऊपर भी, ये बात भी मै बखूबी जानता हूं 
यही इक है बात जो बिगड जाने से रोकती है


हर रात के बाद इक सुबह होनी ही है, पर काली घटा घनी है अभी
रोकना चाहे उजाले को कितना भी ये घटा, उजाला न रुकेगा कभी
चाहे जितनी भी यें उजाले को आने से रोकती है

- जितेन्द्र तायल/तायल "जीत"
 मोब 9456590120

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Wednesday 15 April 2015

माना कि कामयाबी की ऊचाई पर है वो














माना कि कामयाबी की ऊचाई पर है वो                       
पर ऐसी भी क्या बेरुखी, हमे देख रास्ता बदलने लगा है

हमीं ने अर्ग देकर सूरज बनाया था उन्हे
पर देख ए दुनिया हमारे बिन, ताप उनका भी ढलने लगा है

करने लगे है पीठ पीछे चुगली हमारे अपने
ऐसा लगता है ए खुदा, सिक्का हमारा भी अब चलने लगा है

ठुकरा कर हमे खुश नही रह पाया है वो भी
अकेले गम मे बिन हमारे, हाथ वो भी अपने मलने लगा है

जहां आज धूप खिली है, छाव भी होनी है वहां
वक्त की आदत है ये तो, फिर आज करवट बदलने लगा है

उसी ने ठुकरा के बिखरा दिया था ये नसीब
उसी की रजा से फिर ये “जीत”, उठ्कर यूंही सम्भलने लगा है

बडे-बडो की शमा बुझने को है इन आंधियो मे
हमारा नन्हा सा दिया ये, खुद-ब-खुद अन्धेरो मे जलने लगा है


- जितेन्द्र तायल/तायल "जीत"
   मोब. 9456590120



Friday 10 April 2015

ये किसी और की भी कहानी है ??











मै इक आम का पेड हूं

पिन्टू के दादा जी ने उसके जन्म पर प्यार से लगाया था

दादा जी तो मेरे और पिन्टु के जन्म के माह बाद ही चल बसे

पर पिन्टु की मां ने पिन्टु की तरह ही मेरे ख्याल में दिल लगाया था

वर्ष का हुआ तो मै जवान और पिन्टु खेलने लायक हो गया

अब पिन्टु मेरे बच्चे जैसा ही था

मेरी गोद मे वो बहुत खेलता था

दोस्तो से लड कर मेरे पास बैठता था

मेरी शाखो पर झूलता था

मेरे आम भी बहुत मीठे थे

सारा घर ही मेरे आम के बिना मौसम मे खाना भी नही खाता था

और पिन्टु तो आम के मौसम मे खाना ही नही खाता था

समय बीतता गया अब पिन्टु मेरे साथ ही बडा हो रहा था

मेडिकल की परिक्षा दे रहा था 

परिक्षा के परिणाम की चिन्ता थी किसी से कुछ नही कहता था

पर मेरे पास बैठ कर दिल हल्का करता था

आखिर उसकी मेहनत सफल हो गयी और पिन्टु पढ्ने विदेश चला गया

पिन्टु अब डाक्टर साहब बन गया है, अम्मा जी भी चल बसी

अब डाक्टर साहब को मेरे पास बैठ्ने का समय नही है


अब मै बूढा हो गाया हूं , आम भी नही दे पाता

बेकार हूं, बहुत जोर लगाया सारी नसे दुखने लगी पर आम नही पैदा कर पाया

पर अब भी मै दे सकता हुं पूजा की लकडी, पत्ते और छाया

डाक्टर साहब को भी अब मै फालतु लगने लगा 

खैर घर मे खुशियां फिर आयी डाक्टर साहब की शादी डाक्टरनी मैडम से हो गयी

मैड्म ने घर को बडा करने की सोची और कमरो का नक्शा बनवाया

पर मैडम के कमरो के रास्ते मे तो मै आया

अब डाक्टर साहब ने मुझे कट्वाने की ठानी

पर वन विभान वालो ने डाक्टर साहब की मानी

डाक्टर साहब ने बहुत पैर पट्के पर उनकी चली

और मैडम के इक कमरे पर वन विभाग की कलम चली

अब मै घर के कोने मे खडा हुं, छाया, पूजा की लकडी, पत्ते देता हूं

डाक्टर साहब का बेटा चिन्टू अब मेरी गोद मे खेलता है

इक दिन नौकरानी ने मेरी शाखो पर डाक्टर साहब के चड्डी- बनियान सुखा दिये

और बस मेरा काम अब चड्डी- बनियान सुखाना ही है

अब एयर कन्डिश्न कमरो वालो के लिये छाया का तो कोई मोल नही है पर

जब भी फैशन को घर मे पूजा हो तो लकडी और पत्ते के लिये मुझे याद किया जाता है



-  तायल "जीत"