मन के अन्दर से निकली एक रचना सादर प्रेषित है
आंसु भी बनने लगे है कि सपने
आंसु भी बनने लगे है कि सपने
आंखियों मे आंसु
मेरी थे ओ-साथी
सपनो कि आहट
न कोई यहां थी
जब से हुये हो
तुम मेरे अपने
आंसु भी बनने
लगे है कि सपने
देख के हमको
जो तुम मुस्कुरा दी
लाखों ये खुशियां
इस मन में ला दी
मीठे से अरमां लगे है मचलने
आंसु भी बनने लगे है
कि सपने
परदा गिरा के
जो तुमने दिया गम
नही जानते अब
जियें या मरें हम
दिल का परिंदा
लगा अब तडपने
आंसु भी बनने लगे है
कि सपने
शरमा के तुमने
यें अंख जो मिला दी
इस जख्मी से
दिल को बस इक दवा दी
अनदेखी सी हसरत
लगी है पनपने
आंसु भी बनने लगे है
कि सपने
जरा यूं सरक
के तूमने इशारा किया है
डूबती कश्ती
को इक किनारा दिया है
तेरे मुहल्ले
के लडके लगे है कलपने
आंसु भी बनने लगे है
कि सपने
लटो को जो अपनी
यें झटका दिया है
गुलाबों को कितने
ही बिखरा दिया है
धडकन भी अब तो
लगी है महकने
आंसु भी बनने लगे है
कि सपने
सुर्ख आंचल जो
तुने यूं बिखरा दिया है
इन चिगांरियों
को बस हवा सा दिया है
गर्म शोला सा
तन में लगा है दहकने
आंसु भी बनने लगे है
कि सपने
- जितेन्द्र तायल/ तायल "जीत"/२८.०३.२०१५
मोब. ९४५६५९०१२०
बहुत सुन्दर और भावपूर्ण प्रस्तुति..
ReplyDeleteउत्साह वर्धन के लिये दिल से आभार आदरणीय
Deleteहर शब्द अपनी दास्ताँ बयां कर रहा है आगे कुछ कहने की गुंजाईश ही कहाँ है बधाई स्वीकारें
ReplyDeleteबहुत आभार आदरणीय
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