कभी सुर्य ओजस्वी
ये, तिमिर में पट नही सकता
अकिंचन पत्र
ये मेरा अवाचित फट नही सकता
बिना मरजी तेरी
या-रब, कोई पत्ता नही हिलता
तू न चाहे कोई
भी रथ, सुपथ पर डट नही सकता
महगीं है यहां
गाडी, यहां ईमान सस्ता है
वो बाजार है
दुनियां जहां ईसांन सस्ता है
पर बिक्री को
स्वयं की गर तैयार तुम ना हो,
तो दाम तुम्हारा
ये, कभी भी घट नही सकता
तू न चाहे कोई
भी रथ, सुपथ पर डट नही सकता
नफरत की जो कडवाहट
है बनकर आयी मिठाई
अदावत पे उतारू
अब, यहां है अपना ही भाई
जानलो अपना ही
हथियार है अपने मुकाबिल भी
अब हीरा कांच
के औजार से तो कट नही सकता
तू न चाहे कोई
भी रथ, सुपथ पर डट नही सकता
किसी ने मान
लिया दोषी, इसी को तो मन्दिर का
कोई कहता है
कातिल, इसे तो अपने ही घर का
ये देश हो खामोश
दरिया तो, ये दो इसके किनारे हैं
इन किनारो से
खुद के ही तो, ये हट नही सकता
तू न चाहे कोई
भी रथ, सुपथ पर डट नही सकता
शब्द है रूप
सच्चा, ……….. मां वीणापानी का
शब्द में ही
सार, बाईबल-कुरान और गुरबानी का
शब्द ऐसे बोलना
कि, ………… अर्थ न बिगड जाये
गर तीर चल जाये
इक बार, तो पलट नही सकता
तू न चाहे कोई
भी रथ, सुपथ पर डट नही सकता
-जितेन्द्र तायल/ तायल "जीत"
मोब. 9456590120
उत्साह वर्धन के लिये हार्दिक आभार आदरणीय @डा.हीरालाल प्रजापति
ReplyDeleteअति सुन्दर .............क्या बात है .........अच्छा लगा यहाँ आकर!
ReplyDeleteआभार
Deleteबहुत सुन्दर भावों को शब्दों में समेट कर रोचक शैली में प्रस्तुत करने का आपका ये अंदाज बहुत अच्छा लगा,
ReplyDeleteसादर नमन मित्रवर
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