माना कि कामयाबी की ऊचाई पर है वो
पर ऐसी भी क्या
बेरुखी, हमे देख रास्ता बदलने लगा है
हमीं ने अर्ग
देकर सूरज बनाया था उन्हे
पर देख ए दुनिया
हमारे बिन, ताप उनका भी ढलने लगा है
करने लगे है
पीठ पीछे चुगली हमारे अपने
ऐसा लगता है
ए खुदा, सिक्का हमारा भी अब चलने लगा है
ठुकरा कर हमे
खुश नही रह पाया है वो भी
अकेले गम मे
बिन हमारे, हाथ वो भी अपने मलने लगा है
जहां आज धूप
खिली है, छाव भी होनी है वहां
वक्त की आदत
है ये तो, फिर आज करवट बदलने लगा है
उसी ने ठुकरा
के बिखरा दिया था ये नसीब
उसी की रजा से
फिर ये “जीत”, उठ्कर यूंही सम्भलने लगा है
बडे-बडो की शमा
बुझने को है इन आंधियो मे
हमारा नन्हा
सा दिया ये, खुद-ब-खुद अन्धेरो मे जलने लगा है
- जितेन्द्र तायल/तायल "जीत"
मोब. 9456590120
जहां आज धूप खिली है, छाव भी होनी है वहां
ReplyDeleteवक्त की आदत है ये तो, फिर आज करवट बदलने लगा है..............वाह बहुत खूब!
उत्साह वर्धन के लिये बहुत आभार प्रभात जी
Deleteउसी ने ठुकरा के बिखरा दिया था ये नसीब
ReplyDeleteउसी की रजा से फिर ये “जीत”, उठ्कर यूंही सम्भलने लगा है
...ठोकरों से ही सीखता है इंसान ..
बहुत सुन्दर
बहुत आभार कविता जी
Deleteबडे-बडो की शमा बुझने को है इन आंधियो मे
ReplyDeleteहमारा नन्हा सा दिया ये, खुद-ब-खुद अन्धेरो मे जलने लगा है ..
मन में उमग और साहस हो तो दिया बुझने नहीं पाता ... भावपूर्ण अभिव्यक्ति है ...
बहुत आभार आदरणीय
Deleteआपका ब्लोग पर बहुत स्वागत है
...वाह बहुत खूब!
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद मित्र
Deleteफेसबुक से आपके ब्लॉग की जानकारी मिली।
ReplyDelete--
अच्छा लिखते हैं आप।
बहुत आभार सर
Deleteआप जैसे वरिष्ठ से उत्साह वर्धन पाना बहुत प्रेरणादायी है