इस मिट्टी को बेईमानी के पानी मे मिला के चाक पर ये ठोकती है
बार-बार, हर-बार ए “जीत” मिट्टी को गुनाहों की आग मे झोकती है
पर नेकियों का सिला भी आदतन, भला देती है सबको ये कुदरत
इस तरह गुनाहों मे हद से गुजर जाने से रोकती है
झूठ बोलना पाप था पर, ईन्सान अब झूठ बोलते नही लजाते है
सीखना था जिनसे सच बोलना, वही रेल मे गलत उम्र बताते है
यही दुनियादारी है जो सच बोलने से रोकती है
कविता होती है समाज का आइना, पर टी.वी. समाज को गढते है
घर के बडों से सीखते थे बच्चे, अब टी. वी. रोज ये देख बढते है
यही कलाकारी इन्हे मां-बाप पे जाने से रोकती है
ऊचाइयों की तमन्ना हमे भी थी, खासे बेकरार थे ऊचां दीखने को
बुलन्द मीनारों की जद मे गये हम, ऊचाईयों का हुनर सीखने को
वही ईमारत हमारे हिस्से की धूप को रोकती है
जहां मे हर इन्तजाम है, यहां बिगडने का हर समान है मानता हुं
कोई है यहां इस जहां से ऊपर भी, ये बात भी मै बखूबी जानता हूं
यही इक है बात जो बिगड जाने से रोकती है
हर रात के बाद इक सुबह होनी ही है, पर काली घटा घनी है अभी
रोकना चाहे उजाले को कितना भी ये घटा, उजाला न रुकेगा कभी
चाहे जितनी भी यें उजाले को आने से रोकती है
- जितेन्द्र तायल/तायल "जीत"
मोब 9456590120
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यथार्थ।
ReplyDeleteअभार आदरणीया
Deleteसच है ... उजाले को कोई नही रोक सका ... जिसने आना है वो सीप फोड़ के भी आता है ...
ReplyDeleteसुन्दर रचना ...
बहुत शुक्रिया आदरणीय
Deleteबहुत ही शानदार रचना।
ReplyDeleteहौसलाअफ्जाही के लिये तहे दिल से शुक्रिया
Deleteशब्दों में उतरे हैं भाव खुद ही ...सुन्दर
ReplyDeleteसच कहती पंक्तियाँ .
नई पोस्ट ….शब्दों की मुस्कराहट पर आपका स्वागत है
्बहुत शुक्रिया आदरणीय
Deleteखूबसूरत रचना।
ReplyDeleteअभार नमन
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